Monday, October 26, 2015

Space

Take this man, crushed cane in the city's slick machinery. Published in the Mint (Oct 24, 2015):



Read the whole comic herehttp://mintonsunday.livemint.com/news/space/2.4.1779521176.html

Saturday, October 24, 2015

Please go, if you can

Extract from a recent letter to Uddhav Thackeray:

A group of Indians had been invited to participate in a social media summit. Reporters covering the event often asked: “So, how does it feel to be here?”


Uddhav ji, I had to tell the truth. Karachi looked quite like Bombay/Mumbai, except that most of the signs, hoardings and graffiti on walls were in the Urdu script. The air, the smells, the food – there was so little difference that I was a bit put out. All that nail-biting about the visa, that absurdly long flight via Dubai (to think it would be only a few hours on a ferry!) and for what? Their halwa tastes like halwa and their poori tastes like poori. 


अश्लीलता नामक एक चेतवानी


BBCHindi.com पे छपा एक और लेख

महाराष्ट्रा में डाँस बार लौटने की संभावना लौट आई है. सुप्रीम कोर्ट का आदेश है की बार (यानी शराब-घर) में नाच प्रदर्शन पे पाबंदी नहीं लगाई जाई सकती. कोर्ट ने माना कि नर्तकी को बार में काम करने का हक़ है, लेकिन साथ में ये चेतावनी भी दी है - नाच में किसी प्रकार की अश्लीलता ना हो.

लेकिन ‘अश्लीलता’ क्या है? इसकी क़ानून में कोई परिभाषा नहीं. जैसे ‘लाज’ या ‘इज़्ज़त’ या ‘सुशीलता’ की कोई क़ानूनी परिभाषा नहीं. किसी को मटकना अश्लील लगता है तो किसी को आँख का इशारा. किसी को स्तन से तकलीफ़ है तो किसी को टाँग से. किसी को लड़कियों का जीन्स पहेनना अश्लील लगता है और किसी को लड़कों का चूमना.

संस्कृति और शीलता-अश्लीलता की लाठी का सहारा लिए जाने कितनी बार औरतों पे हमला हुआ है. कुछ लोग, जिन्हे ना जनता ने वोट दिया और ना ही किसी ने हिन्दुस्तानी संस्कृति का ठेका उनके हवाले किया, पिछले कुछ सालों से मंगलोर जैसे शहरों में क्लब और बार में लड़कियों को ढूँढते हैं, मारते हैं. कुछ पोलीस-वाले सारे क़ानून तोड़ते हुए पहुँच जाते हैं, मीडीया समेत, मेरठ के पार्क में और युवक-युवतियों को मारा-पीटा जाता है ‘अश्लीलता’ की अाढ़ में. 

अब महाराष्‍ट्र सरकार ये कहती है, औरतों का बार में नाच संस्कृति के ख़िलाफ़ है, जबकि सब जानते हैं, हमारी संस्कृति में औरतों का नाचना तो शामिल है ही, शराब भी शामिल है, भांग और चरस भी शामिल है. हिन्दुस्तान में हज़ारों तरह की संस्कृतियाँ एक साथ जीवित हैं. 

यहाँ मंदिरों में सम्भोग के दृश्‍य तराशे गये. इसी देश में लड़कियाँ सार्वजनिक नाच में भाग लेती हैं, ख़ुद भी शराब पीती हैं और अपने पसंद का साथी चुनती हैं. अपने ही देश के अंडमान आइलॅंड्स में लोग निर्वस्त्र रहते हैं और ख़ुद को अश्लील नहीं समझते. एक समय था, देश के कई हिस्सों में औरतें ब्लाउज़ नहीं पहनती थी. बल्कि पिछली सदी में कुछ औरतों ने अपनी स्मृति रचनाओं में लिखा भी है कि नानी के ज़माने में कोई युवती ब्लाउज़ पहन ले तो उसको अश्लील कह के डाँटा जाता था! छुप-छुप के ब्लाउज़ पहनती थी, रात को, सिर्फ़ पति को दिखाने के लिए!

सदियों से नाच-गाने का प्रदर्शन हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है. कभी मंदिर में था, महल-हवेली में था, फिर कोठे में मर्यादा-बद्ध किया गया, फिर सभागृह में और फिर सिनेमा के पर्दे पर. क्या महाराष्‍ट्र के मुख्या मंत्री साहिब ये नहीं जानते? क्या संगीत बरी और लावनी संस्कृति का हिस्सा नहीं है? जब दरबार या बैठक में नाच होता था, तो क्या दर्शक शराब नहीं पीते थे? आज भी गाँव के मेले में हज़ारों मर्दों के सामने औरतें नाचती-गाती हैं. घर-घर में टीवी चलता है. उसी तरह का नाच बार में हो, तो नेता संस्कृति और अश्लीलता की दुहाई देने लगते हैं.
शायद सुप्रीम कोर्ट को फ़िक्र इस बात की है, बार में नाच के बहाने औरत का शोषण ना हो. ये फ़िक्र इंसानी तौर पे ठीक है, लेकिन इसका क्या फ़ायदा जब तकशोषणऔरअश्लीलताकी कोई क़ानूनी परिभाषा ना बनाई जाए?
मसला नाच का नहीं है. मसला ये है कि नाच ख़त्म होने के बाद, बार बंद हो जाने के बाद क्या होता है. बार में नर्तकी को छूना माना है, ये तो पहले भी नियम था. अगर उसपे दबाव डाला जाता है कि किसी ग्राहक के साथ, या स्वयं बार के मालिक के साथ, संबंध बनाए या अपने जिस्म का सौदा करे, तो उस नर्तकी को यक़ीन होना चाहिए कि वो पोलीस के पास जा सकती है. साथ ही बार में नाचने वालों का संगठन मज़बूत होना चाहिए, ताकि अगर कोई बार मालिक क़ानून तोड़ रहा है तो उसके ख़िलाफ़ बुलंद आवाज़ उठा सकें.

उसे दुतकारा-फटकारा नहीं जाएगा, इस भरोसे कोई नर्तकी पोलीस के पास जाए तो क्या उसके साथ ऐसा बर्ताव होगा कि जैसे पोलीस-वाले की बेटी थाने में आई हो शिकायत दर्ज कराने कि उसके दफ़्तर में उस पर जिस्म का सौदा करने का दबाव डाला जा रहा है? क्या ये हो पाएगा?

इसका जवाब मेरे पास नहीं है. जवाब सिर्फ़ पोलीस दे सकती है और सरकार चलाने वाले नेता. लेकिन जब तक वे अपना दिल टटोल कर जवाब ढूँढते हैं, हमारे वकीलों और न्यायधीशों को भी अपना दिल टटोलना होगा और एक शब्द की परिभाषा सोचनी होगी. ‘अश्लीलताक्या है, क़ानून साफ़ बयान करे और इस शब्द की आढ़ में देश की जनता पे हमला करने वालों को कड़ी सज़ा दे.
  

Monday, October 19, 2015

What Moharram is really about - refusing to forget

An extract from a short piece on what Karbala stands for (in my mind) and how the observance of Moharram remains relevant (that is, if we allow it to):

What does a tragedy mean, after all, if we give it a single word - massacre? How do we honour those who are killed even though they do not want bloodshed? They who die must not be reduced to a statistic. They must not be remembered as mere contenders for power. Therefore, the poetry is in the voice of a beloved who must witness a tragedy.


Read the full piece here: http://www.dailyo.in/politics/moharram-prophet-muhammad-caliph-mecca-medina-karbala-islam-muslim-hasan/story/1/6846.html

Thursday, October 15, 2015

हिंदी में दूसरा लेख छपा bbchindi.com पे

 हिंदुस्तानी महिला, काम और काम की मज़दूरी पे लिखा ये लेख ज़रूर पढ़िए। टिप्पणी करना ज़रूरी नहीं :

http://www.bbc.com/hindi/india/2015/10/151009_women_empowerment_india_figures_ac


मकिन्ज़ी रिपोर्ट के आँकड़े महिलाओं का योगदान नहीं बताते, ये बतलाते हैं जीडीपी के ज़रिए आर्थिक इंसाफ़ या हक़ नहीं नापा जा सकता. मुश्किल ये है कि महिलाओं के श्रम का बाज़ारीकरण नहीं हुआ है. काम तो कर रही हैं. वेतन दे दो, बराबरी भी हो जाएगी.

पर अपने ही घर-परिवार से आर्थिक हक़ माँगना आसान नहीं. क़ीमत मकान की होती है, घर की नहीं. सबसे बड़ी बात, काम से इनकार नहीं कर सकती वो. बच्चे, बूढ़े, जानवर– यह सिर्फ़ आर्थिक नाते नहीं हैं, उसकी ज़िंदगी हैं. इन्हें छोड़ भी नहीं सकती. इसी तरह औरत अक्सर मोहताज रही.

Sunday, October 11, 2015

Why Writers Return Awards


So, this is the second question to ask - why care what a writer says or does?

We care because writers give to a people their voice, their memory, and multiple layers of truth. Even if we do not see our exact selves mirrored in a book or a poem, we still find a part of our collective self. Writers show us a secret tunnel into the lives and minds of people we do not agree with. They incite passion and compassion, debates and dreams, and all the warnings we need. They consider fresh possibilities. They help us confront our fears, failures, shame, pleasure, and the ways in which we have been damaged. They are a nation's conversation with itself.


From a piece published here.

http://www.dailyo.in/arts/sahitya-kala-akademi-nayantara-sahgal-ashok-vajpeyi-sarah-joseph-dadri-lynching-mm-kalburgi-murder-george-orwell-mahasweta-devi/story/1/6715.html
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